बीएससी/बीकॉम/बीए विषय-हिन्‍दी भाषा और नैतिक मूल्‍य इकाई-3(1) , तृतीय वर्ष

                                 ईकाई – 3(1) (पत्रकारिता के विविध आयाम) 

संकलित : अज्ञात


प्रश्‍न - 1 पत्रकारिता का आशय स्‍पष्‍ट कीजिए।

 उत्‍तर-

भारत में पत्रकारिता का उदय बहुत सामान्‍य रूप में हुआ। नारद मुनि को पत्रकारों का पूर्वज माना जाता है। महर्षि नारद अपने समय में विश्‍व के सभी स्‍थानों का भ्रमण करके समाचार संचय और प्रचार-प्रसार का कार्य करते थे, जिससे सम्‍बन्धित व्‍यक्ति तद्नुसार अपना कार्य सम्‍पादन कर सके। नारद के कार्य में जनहित की भावना ही रहती थी। वास्‍तवित पत्रकारिता में उस बात को अभिव्‍यक्ति मिलनी चाहिये, जिसे जनता सोचती है। इसी कारण अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता जनता का मूल अधिकार माना गया है। प्रेस वास्‍तव में ही जन-विचारधारा का प्रतिनिधित्‍व करता है। इसी सन्‍दर्भ में राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने कहा था- 'समाचार-पत्र का एक उद्देश्‍य जनता की इच्‍छाओं-विचारों को समझना और उन्‍हें व्‍यक्‍त करना है, दूसरा उद्देश्‍य जनता में वांछनीय भावनाओं को जाग्रत करना और तीसरा उद्देश्‍य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है।''
    वास्‍तव में समाचार-पत्र वर्तमान इतिहास का मुख्‍य प्रवक्‍ता होता है और इतिहास हर उस कार्य से बनता है जो जनता के हित में है, जिसकी ओर जनता का ध्‍यान आकर्षित होता है एवं जिससे जनता की रूचि परिष्‍कृत होती हैा नैपोलियन का यह कथन कि पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोग शिकायतखोर, टीकाकार, सलाहकार, बादशाहों के प्रतिनिधि और राष्‍ट्र के शिक्षक होते हैं। चार विरोधी अखबार हजार संगीनों से अधिक खतरनाक माने गये हैं। पसिद्ध  शायर अकबर इलाहबादी का यह शेर  अखबार के महत्‍व को प्रतिपादित करता है- 'खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।'


प्रश्‍न - 2 साहित्यिक पत्रकारिता को संक्षेप में समझाइये।

 उत्‍तर-

    अपने प्रारंभ काल से आज तक पत्रकारिता {चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया } ने बहुआयामी विकास किया है। सर्वप्रथम साहित्यिक पत्रिका को लिया जा सकता है। वस्‍तुत: भाषा, समाज और साहित्‍य के विकास में पत्रकारिता की बहुत बडी देन है। साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्‍यम से ही छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, सदृश युग- प्रवृत्तियों का प्रवर्तन हुआ हैा इसके द्वारा अनेका विचारधाराओं का जहां उन्‍मेष हुआ वहीं दूसरी ओर इन्‍हीं से विशिष्‍ट प्रणालियों का प्रचलन हुआ हैा वास्‍तविकता तो यह है कि साहित्‍य और पत्रकारिता एक दूसरे के पूरक हैं। हिन्‍दी साहित्‍य के प्राय: सभी युग प्रर्वतक तथा यशस्‍वी रचनाकार- भारतेन्‍दु हरिशचन्‍द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, सूर्यकान्‍त त्रिपाठी निराला, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुंशी प्रेमचंद, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्‍ण भट्ट आदि लेखक और पत्रकार दोनों ही रूपों में उल्‍लेखनीय हैं। 


प्रश्‍न - 3 फीचर लेखन को स्‍पष्‍ट कीजिये।

 उत्‍तर- 

    बी.बी.सी. में 'फीचर' शब्‍द डाक्‍यूमेंटरी (यथातथ्‍य सूचनाओं पर आधारित रचना) के लिये प्रयुक्‍त होता है। इसका अपना एक इतिहास है। साठ वर्ष पूर्व बी.बी.सी. में फीचर नाम से रचनायें नहीं होती थीं। इसके नाटक विभाग ने रेडियो-टेक्‍नीक के बारे में नये-नये प्रयोग किये। उसेे विशेष अवसरों पर विशेष कार्यक्रम आयोजित करने पडते थे। इन कार्यक्रमों को सामान्‍य कार्यक्रमों से प्रमुखता मिलती थी। लोग इन्‍हें 'फीचर्ड प्रोग्राम' कहते थे। धीरे-धीरे इसके अन्‍तर्गत सभी रचनाओं का समावेश होने लगा जो रेडियो-टेक्‍नीक की दिशा में नये-नये प्रयोगों के लिये होती थी। नये प्रकार की रचनायें जिन्‍हें 'रेडियो डाक्‍यूमैंंटरी' कहते थे, अत्‍यंत आकर्षक थीं। इसी दिशा में और प्रयोग होते रहे। इससे इसकी टेक्‍नीक विकसित होती गई। अब बी.बी.सी. में नाटक विभाग से अलग इनके लिये विभाग है। फीचर की यही पृष्‍ठभूमि है। अंग्रेजी में यथातथ्‍य घटनाओं और सूचनाओं पर आधारित नाटकीय रचनाओं की 'फीचर' कहते हैं। इसी फीचर को हिन्‍दी में रूपक कहा जाता है, परन्‍तु इस रूपक का भारतीय नाट्यशास्‍त्र के रूपक (दृश्‍य काव्‍य का पर्याय) से कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है। वस्‍तुत:  'रेडियो रूपक' शब्‍द अंग्रेजी के 'रेडियो फीचर' के लिये प्रयुक्‍त किया जा रहा है। यह शब्‍द अब रूढ हो गया है।

    एक अच्‍छे फीचर के गुण तथा लेखन प्रक्रिया- किसी भी नीरस परन्‍तु वास्‍तविक विषय को रूपक के माध्‍यम से प्रस्‍तुत किया जा सकता है परन्‍तु उसे प्रस्‍तुत करने के ढंग में मनोरंजकता और सजीयता होनी चाहिये जिससे पाठक में उब पैदा न हो। इसमें सतर्कता की आवश्‍यकता होती है। इसमें यदि लम्‍बाई और गम्‍भीरता आ गई तो यह प्रभावहीन हो जाता है। फीचर ऐसा होना चाहिये जो ह्रदय और मस्तिष्‍क दोनों में हलचल पैदा कर मन को प्रसन्‍न कर दे। फीचर में सारगर्भिता होनी चाहिए। इसी के आधार पर फीचर रोचकता, और प्रभावशीलता से अपनी बात को प्रस्‍तुत करने में सक्षम होता है। 

    नाटक मं नाटकीयता का तत्‍व अधिक होता है। वार्ता में सपाट बयानी होती है, परन्‍तु इसमें नाटकीयता और सपाटबयानी दोनों का सम्‍बन्‍ध होता है। नाटक में कल्‍पना की अधिकता होती है, परन्‍तु यह तथ्‍यों पर आधारित होता है। रेडियो-रूपक किसी भी विषय पर हो सकता है।

    मुख्‍य रूप से समाचार आधारित, घटना-विशेष पर आधारित, किसी के व्‍यक्तित्‍व, इतिहास, पुरूष, सामाजिक, सूचनात्‍मक, शिक्षात्‍मक आदि भेद किये गए हैं। इसमें प्रमुख रूप से तीन तत्‍व- शब्‍द, संगीत तथा ध्‍वनि प्रभाव होते हैं। इसमें वक्‍ता या वाचक एक अथवा दो होते हैं। इनमें एक स्‍वर स्‍त्री का तथा दूसरा पुरूष का स्‍वर होता है। ये घटनाओं की बिखरी हुई कडियों को जाडते हैं, दृष्‍यों, परिस्थितियों के विवरण प्रस्‍तुत करते हैं, किसी विषय पर बाद-विवाद करते हैं या कथा कहते हैं। रेडियो रूपक थोडे से शब्‍दों में अपनी बात को कहता है और रोचकता के साथ कहता है। फीचर लेखक का विषय महत्‍वपूर्ण और शब्‍दशक्ति प्रभावशाली होनी चाहिए। रेडियो माध्‍यम में चित्र को श्रोताओं के मस्तिष्‍क में उतारने के लिए ध्‍वनि प्रभावों से काम किया जाता है।


प्रश्‍न - 4 ग्रामीण पत्रकारिता क्‍यों आवश्‍यक है 

उत्‍तर-

     भारत गावों में बसता है इसलिये जनसंचार का सर्वाधिक प्रबंधन ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाना चाहिए। ग्रामीण व्‍यवस्‍था से संबंधित पत्रकारिता को ग्रामीण पत्रकारिता का नाम दिया जाता है। भारत में ग्रामीण पत्रकारिता की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। छोटे-बडे प्राय: सभी पत्र-उद्योग नगरों और महानगरों में ही स्थित हैं और पत्रकारों का ध्‍यान भी अधिकतर शहरी घटनाओं पर ही केन्द्रित रहता है। अखबारों के संवाद सूत्र ग्रामीणों के स्‍तर पर उतरकर न तो उपयुक्‍त भाषा का ही प्रयोग कर पाते हैं और न ही ग्रामीण संस्‍कृति की जानकारी ही रखते हैं। दूसरी ओर गांवों में अखबारों की पाठकीयता नहीं के बराबर है। विज्ञापनदाता तो बिल्‍कुल ही नहीं हैं इसलिए मीडिया में गांव का जनजीवन दिन- प्रतिदिन उपेक्षित होता जा रहा है। यद्यपि इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में 'चौपाल' व 'कृषि-दर्शन' सदृश कार्यक्रम गांवों में पर्याप्‍त लोगप्रिय हैं। फिर भी आज कल्‍याणकारी पत्रकारिता के लिए आवश्‍यक है कि वह ग्रामीण संस्‍कृति, ग्रामीण समाजशास्‍त्र, ग्रामीण अर्थशास्‍त्र व ग्रामीण प्रशासन व्‍यवस्‍था को पर्याप्‍त स्‍पेस दें क्‍योंकि भारत मूलत: कृषि-प्रधान देश होने के साथ अधिकांशत: जनसंख्‍या गांवों में ही निवास करती है।



प्रश्‍न - 5 पत्रकारिता के विभिन्‍न प्रकारों पर एक निबंध लिखिए।

 उत्‍तर- 

    वर्तमान में पत्रकारिता का क्षेत्र असीमित हो गया है। आज मानव की जिज्ञासा का एक भी बिन्‍दु या क्षेत्र पत्रकारिता के प्रभाव या आभा से अछूता नहीं है। यहां तक कि मानव , पशु, पक्षी, जीव-जन्‍तु सभी के व्‍यक्तिगत जीवन में भी अनाधिकार पूर्ण दखलन्‍दाजी पत्रकारिता के नाम पर हो रही है। आज पत्रकार अपनी रूचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार विशिष्‍ट क्षेत्रों का चयन कर अपनी कलम चला रहे हैं। इन क्षेत्रों का संक्षेप में विवरण निम्‍नानुसार है -

1 अन्‍वेषी या खोजी पत्रकारिता - किसी समाचार को साक्ष्‍य एवं तथ्‍यपूर्ण बनाने के लिये जब पत्रकार अपने स्‍वयं के बल पर इन जानकारियों को खज निकालता है, जो जानकारियां सामान्‍य जन के संज्ञान में नहीं होतीं लेकिन सार्वजनिक महत्‍व की होती हैं, वह सब अन्‍वेषण या खोजी पत्रकारिता का अंग मानी जाती हैं। वर्तमान में 'पीत' जत्रकारिता के रूप में यह क्षेत्र बदनाम हो चुका है। कई समाचारों को अगर काल्‍पनिक प्रसंगों, अफवाहों, अप्रमाणित तथ्‍यों के आधार पर प्रकाशित कर दिया जाये तो वह पत्रकारिता की तौहीन है। ऐसे हालातों में पत्रकार जासूस या अन्‍वेषणकर्ता की भूमिका अदा कर सच्‍चाई निकाल कर लाता है। वर्तमान में आर्थिक विषमताओं, उलट-फेरों, और आकण्‍ठ भ्रष्‍टाचार में संलिप्‍त विभागों-अधिकारियों से सही खबर के मिलने की गुंजाइश न के बराबर रहती है। ऐसे में सूझबूझ और तर्कसंगत् विवेक वाला पत्रकार खोजी प्रवृत्ति से ही सत्‍य के निकट पहुंचता है और पाठकों को सत्‍य से अवगत कराता है। जैसे- 'वाशिंगटन पोस्‍ट' के दो संवाददाता वर्नस्‍टाइन और वुडवर्ग ने अपनी प्रतिभा तथा तत्‍परता के बल पर गुप्‍तचर का युगान्‍तरकारी कार्य किया, फलत: 'वाटगेट काण्‍ड' से सत्‍ता परिवर्तन हुआ।

2 आर्थिक या व्‍यावसायिक पत्रकारिता- आज की पत्रकारिता पूंजीपतियों के इर्द-गिर्द घूमने तथा दया पर पलने वाली कही जाने लगी है। इसके पीछे मुख्‍य कारण वर्तमान में एक सफल समाचार-पत्र के लिये उसकी सफल या सुदृढ आर्थिक स्थिति का होना आवश्‍यक है। यह सुदृढता बाजार से मिलने वाले विज्ञापन पर निर्भर है। यह विज्ञापनदाता पूंजीपति वर्ग है, इसीलिए आज अखबार की मुख्‍य धुरी पूंजीपति बन गये हैं। 

    विभिन्‍न व्‍यापारिक और वाणिज्यिक खबरों का प्रकाशन अब पत्रों में प्रमुखता के साथ होने लगा है। यही कारण है कि अब प्राय: सभी समाचार-पत्र एक-एक, दो-दो पेज व्‍यापार-वाणिज्‍य, कार्पोरेट जगत् आदि के नाम से ही देने लगे हैं। शेयर बाजार, मुद्रा बाजार, पूँजी बाजार, पंचवर्षीय योजना, बैंक की योजनायें, ग्रामोद्योग, उद्योग, श्रम, बजट, और राष्‍ट्रीय आय के समाचार अब पाठकों की रूचि का केन्‍द्र बनते जा रहे हैं। इसीलिये तो 'द इकोनामिक टाइम्‍स', दैनिक अकोला बाजार समाचार',  'व्‍यापार भारती' , और 'फाइनेन्शियल एक्‍सप्रेस' जैसे महत्‍वपूर्ण पत्रों द्वारा उद्योग-व्‍यवसाय की जानकारी दी जा रही है। 

3 ग्रामीण पत्रकारिता (ऑंचलिक पत्रकारिता) - भारत गॉंवों का देश है। यह सुनते - कहते और पढते हम थकते नहीं हैं लेकिन आजादी के 60 वर्ष बाद भी भारतीय पत्रकारिता में 80 प्रतिशत भारत की तस्‍वीर आक्स्मिक घटनाओं से अधिक नहीं उभरी


प्रश्‍न - 6 लडके को क्‍यों लगता है कि जिंदगी जड हो गई है

 उत्‍तर- 

    लडके को इसलिए लगता है कि जिंदगी जड हो गई है क्‍योंकि उसकी जिंदगी में बिल्‍कुल भी उत्‍साह नहीं रहा है अर्थात् उसकी जिंदगी उत्‍साहहीनता से भरी उठी है। वह अनमने भाव से जिंदगी जी रहा है, जिससे उसके शरीर में शीघ्र थकावट भी आ जाती है। उसके जीवन में इतनी अधिक भागमभाग हो गई है कि उसे लगता है कि वह जिंदगी से हार गया है। उसके उपर कार्यों का इतना अधिक बोझ पड रहा है जिससे उसकी जिंदगी अत्‍याधिक जटिल व जडवत् हो गई है।


प्रश्‍न - 7 'टूटते हुए' एकांकी की समीक्षा अपने शब्‍दों में संक्षेप में कीजिये।

 उत्‍तर- 

    'टूटते हुए' एकांकी में डॉ. सुरेश चन्‍द्र शुक्‍ल ने महानगर के टूटते हुए मध्‍यमवर्गीय परिवार का सजीव चित्रण किया है। 'टूटते हुुए' एकांकी में एक मध्‍यमवर्गीय परिवार के चार सदस्‍यों के बारे में बताया गया ळै जो कि एकांकी के मुख्‍य पात्र हैं। वर्तमान युग की इस व्‍यस्‍ततम जीवन शैली में एक मध्‍यमवर्गीय परिवार के सभी सदस्‍यों को जीविकोपार्जन हेतु घर से बाहर जाना पडता है। परिवार के लोगों का जीवन इतना जटिल तथा व्‍यस्‍ततम हो गया है कि परिवार के किसी भी सदस्‍य के पास आपस में बैठकर बातचीत करने तक का समय नहीं है। एकांकी के अनुसार आजकल पैसा कमाना तथा व्‍यस्‍त रहना ही जीवन का मूलमंत्र बन गया है। पैसा कमाने की अंधाधुंध दौड में तथा जीवन की आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिये परिवार का प्रत्‍येक सदस्‍य भागमभाग में लगा है। भागमभाग वाले तनावमय जीवन की इस व्‍यस्‍तता तथा जटिलता में परिवार का आपसी प्रेेम, मेल-मिलाप तथा लगाव कहीं खो सा गया है। आजकल का मानव परिवार से अधिक अपने काम तथा पैसे को ही महत्‍व दे रहा है।


Unit - 2 (2)



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