नोट:- यह एक सत्य घटना पर आधारित एवं स्वंय के द्वारा बनायी गई पोस्ट है। इस पोस्ट का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, समूह, एवं वर्तमान समाज, साम्प्रदायिक, धर्म इत्यादि को छति पहुँचाना नहीं है। इसे केवल एक कविता के रूप में ही पढें एवं इसके द्वारा भविष्य में किसी भी प्रकार का दुष्प्रभाव पोस्ट की जिम्मेदारी नहीं होगी।
प्रारंभ
स्वरूचि भोज का आया न्योता, तन मन हर्षे नाती पोता।
दादाजी हम साथ चलेंगे, स्वरूचि भोज का स्वाद चखेंगे।
आठ बजे का समय लिखा था, मन ही मन कुछ भाव जगा था।
आखिर वो अवसर भी आया, नंदनि पैलेस पहुंचे भाया।
दूल्हा था घोडे के ऊपर, आगे लडके नाच रहे थे सुपर।
पीछे थे हम एक अकेले, शेष बाराती चाट रहे थे।
जाकर हमने देखा अंदर, पैलेस में तो भीड भयंकर।
कुछ भोजन पाने को आतुर, कुछ ले खाली प्लेट खडी थी। (भीड)
आए थे कुछ मौज उडाने, तरह-तरह के व्यंजन खाने।
भीड देखकर हिम्मत हारी, पेट भरन को मारा मारी।
कुछ सब्जी लिये घूम रहे थे, रोटी खातिर लूम रहे थे।
रोटी सिक कर बाहर को आती, इतने में तो लाइन लग जाती।
रोटी एक भीड अति भारी, छूट गई मर्यादा सारी।
एक रोडी जब बाहर आई, हमला किये आठ-दस भाई।
रोटी पर ये अत्याचार, देखा हमने पहली बार।
रोटी पूडी दुर्लभ हो गई गई, दाल भात से भर रहे पेट।
आए थे वहुव्यंजन खाने, कुछ पहुँचे घर खाली पेट।
देख नजारा रूचि भोज का, खाली देखे सब स्टाल।
कुछ कपडो को पोंछ रहे थे, फैल गई थी उन पर दाल।
भात भागोडे हो गए भैया, रह गए केवल सब्जी दाल।
जाने कब से भूखे थे वो, ले-ले हाथों पी गए दाल।
खान-पान की मारा मारी, गिद्दों में देखी थी प्यारे।
गिद्दों को प्रमोशन देकर, बना दिये इन्सान बेचारे।।
⭐⭐⭐⭐⭐
लेखक- सरजन सिंह राजपूत(एडवोकेट)
प्रकाशित- रविन्द्र राजपूत (टायपिस्ट, स्टेनो)
पता- ग्राम नरेला तह. बैरसिया, जिला भोपाल
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